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Shrimad Bhagwat Geeta | श्रीमद भगवद गीता

 श्रीमदभगवदगीता यह सात सौ श्लोकों का छोटा-सा ग्रन्थ मननशील पाठकों को अत्यंत प्रिय होने योग्य है। यह गीता अन्य इतना छोटा है, तथापि अर्थकी गंभीरता की दृष्टि से इसकी योग्यता बहुत बड़ी है। इलिये महात्मा गांधी जी जैसे बना यक्तिके पथपर स्वयं चलने और जनता को ‘बकाने वाले, माहिसा धर्म का पुनरुज्जीवन करने वाले कर्मयोगी ने इसका अर्थ वर्धिष्णु है ऐसा कहा है –  

गीता एक महान् धर्मकाव्य है। उसमें आप जितने गहरे पड़ेंगे उतने हो नये और सुंदर अथ आपको मिलेंगे। गीता सर्व-साधारण की चीज है और इसलिये उसमें एक ही बात अनेक तरह से कही गई है। अतएव गीतामें प्रयुक्त महाशब्दों का अर्थ हर एक युग मे बदलेंगे और विस्तृत होते जायेंगे । पर गीता का मूल मन्त्र कभी नहीं बदलेगा। जिस रीति से यह मन्त्र सिद्ध किया जा सकता है उस रीति से जिज्ञासु उसका जो चाहे अर्थ करे।” 

श्री० महात्मा गांधीजी ने निरंतर ४० वर्ष गीता का ‘मनन किया और गीता उपदेश के अनुसार भाचरण किया और पश्चात् उक्त शब्द लिखे हैं, इसलिये इनके विश्व फाब्द लिखना सहम ही में नहीं हो सकता। गीता का अर्थ एकवार पढने से ध्यान में नहीं जा सकता मनुष्य कितना भी विद्वान् क्यों न हो, थोडे से मनन से गीता नन्ध का बहुत समझ में नहीं आ सकता। लोकमान्य तिलक जी ने ४५ वर्ष गीता का मनन किया और गीता रहस्य अन्य लिखा, महात्मा गांधी जी ने ४० वर्ष मनन के साथ भाचरण किया और अपना भाषान्तर प्रकाशित किया जिसकी भूमिका में वे कहते हैं कि 

“गीता के अनुसार आचरण करने में प्रतिदिन निष्फलता होती है. इस निष्फलता हम सफलता की उगती हुई किरणों की झांकी देखते हैं।” चाळीस वर्ष अखंड तपस्या करने वाके के ये शब्द नि:संदेह गीता उपदेश की गंभीरता के सूचक है ।  “

Writer (लेखक ) श्रीपाद दामोदर सातवळेकर
Book Language ( पुस्तक की भाषा ) Hindi | हिंदी
Book Size (पुस्तक का साइज़ )
927.11 MB
Total Pages (कुल पृष्ठ) 969
Book Category (पुस्तक श्रेणी) हिन्दू-धर्म / Hinduism

पुस्तक का एक अंश

केवल संस्कृत भाषा अथवा अनुवाद की भाषा जानन से गीता का आशय, मनन न करते हुए, ध्यान मे आना करीव क्ष अशक्य है। वेद, उपनिषद् और गीता इन सभी ग्रंथोकी अवस्था यही है। प्रायः सारे ऋषियों के विषय में यही बात है। विशेष अननके | विना उनका हुगत समझना अति कठिन कार्य है। यह इस हिये होता है कि, ये अन्य विशेष मनोभूमिका की अवस्था लिखे होते हैं और इनके ठिकाण मी भिन्न होते है। जब तक उनका रष्टिकोण समझने नहीं भाता तबतक उनके उपदेश समझ में आना कठिन है।

श्रीमच्छंकराचार्यजी तथा अन्य अनेक आचार्यों ने यह कहा है कि “वैदिक धम” के सत्य सिद्धांत कालान्तरसे जनतांक मनसे दूरहुर, अतः उनको पुनः उज्ज्यलिन करके जनता क सम्मुख रखने के लिये गीताशास्त्र कहा गया है। यह आचार्यों का कथन नितांत सत्य है। वैदिक धर्षके गूढ सिद्धांत उज्ज्वक रूपमें देखने की इच्छा हो, तो गीता पढी जाय । स्वयं गीतामें चतुर्थाध्याय के प्रारंभ में यही बात कही है- “श्रीभगवान् वोल – यह अविनाशी योग मैंने विवस्वान से कहा था, उसने मनुसे और मनुने दवाकु से कहा। इस प्रकार परंपरा से आया हुआ और राजाओ का जाना हुआ यह योग दीर्घकाल के कारण नाश का प्राप्त हुआ।  वही पुरातन रहस्य रूप याग मैंने आज तुमसे कहा है, क्योंकि त मेरा भक्त है और मित्र भी है।”

यहां स्वयं भगवान द्वारा कहा गया है कि, गीता कोई रया शारा नहीं है। परन्तु प्राचीन परंपरा जो शान माविकालसे चला आया है, वही पुन: यहां कहा गया है। ‘वेद’ ही अनादिशन प्राचीन परंपराले बला आता है। परन्तु मानची बझान कारण उस मागले अबुध्या दूर चले जाते हैं। इसलिये जनताको जगानेवाले ‘उत्तम पुरुष ‘वारंवार आते हैं, वे आकर जनताको जगाते है, और पारंपरिक मान देते हैं। 

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