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Hindi Kahani ( हिंदी कहानी : प्रक्रिया और पाठ ) – Surendra Chaudhary

Hindi Kahani | हिंदी कहानी : प्रक्रिया और पाठ – इस पुस्तक के लेखक श्री सुरेन्द्र चौधरी जी है। यह पुस्तक हिंदी भाषा में लिखित है। इस पुस्तक का कुल भार 3 MB है एवं कुल पृष्ठों की संख्या 186 है। निचे दिए हुए डाउनलोड बटन द्वारा आप इस पुस्तक को डाउनलोड कर सकते है।  पुस्तकें हमारी सच्ची मित्र होती है। यह हमारा ज्ञान बढ़ाने के साथ साथ जीवन में आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करती है। हमारे वेबसाइट JaiHindi पर आपको मुफ्त में अनेको पुस्तके मिल जाएँगी। आप उन्हें मुफ्त में पढ़े और अपना ज्ञान बढ़ाये।

Writer (लेखक ) सुरेन्द्र चौधरी
Book Language ( पुस्तक की भाषा ) Hindi | हिंदी
Book Size (पुस्तक का साइज़ )
3 MB
Total Pages (कुल पृष्ठ) 186
Book Category (पुस्तक श्रेणी) कहानी | Stories

पुस्तक का एक अंश

सामान्यतः पाठकों और आलोचकों के एक समुदाय के बीच इस बात को लेकर मर्तैक्य हे कि कथा हमारा मनोरंजन करती है। दस मनोरजन को जेकर अमिजात राचि वरावर कथा-कद्दानियों को शेय दृष्टि से दरखूती आयी है। कुछ बुजुर्गों का ख्याल भराज मी कथा-साहित्य को टेकर बदला हो, प्र्सा देखने में लहों आता। हदिंदो का “मनोरजन’ चांद आज्ञ अपनी मूल ध्वनि खो चुका हो, फिर भी उसे दम थगरेजी “इण्टरटेममेंट” का एकमात्र पर्याय त्तो नहीं हो मानेगे । मनोरजन बहुत वड़ा गुण है और उस अथ में बहुत ही कम तथाकथित भनोर॑जक कहद्दानियों मनोरजन करती है।

एक भ्रंगरेज आलोचक का तो कहना हैं कि मनोर॑जक ओर यमीर जेसे विशेषण कथा के चारिध््य को स्पष्ट करने के लिए नाकाफ़ी है या छछ अर्थों में आमक भो ऐ । हम सामान्यत: , ऐसा मान छेते हे कि मनोरजन करनेवाला कथाकार क्रिसो “गहरे सल्य’ का घायन नहीं कर सकता और गमीर साहित्यकार (चाहे वह कथाकार ही क्यों न हो !) मनोरजन नहीं कर सकता। पता नहीं, यह गलत धारणा हमारे अदर कहाँ से और कब से पेंदा हो गयी है ! यह ठौक ह कि भाज कथा- साहित्य में “इण्टरटेनरॉ’ का एक बहुत बड़ा समुदाय पेदा हो गया है क्तु उससे मनोरजन का गुण दृषित हो जाय, यह बात नहीं ।

बहुत-से ऐसे समर्थ कथाकार हैं जो गहरे से गहरे साय को अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया में भी मनोर॑जन का गुण नहों छोड़ते कौर बहुत-से ऐसे मी क्थाकार ऐ जो गमीरता का यहाँ से वहाँ तक स्वास करने पर भी “इण्टरट्रेनरों’ के रुत्तर से ऊपर नहीं उठ पाते ।
मे रचनात्मक और मनोरजक साहित्य के बीच प्रत्तिमा का भेद इृनिम मानता हूँ ! चूँकि कोई रचना जन-सगुदाय के बीच प्रझलन पाती थे इसीलिए वह रचनात्मक नहीं है, ऐसी धारणा *मिड्िल मो’ हो सकती है, यथार्थ नहीं।

बल्तुतः नो लोग सनोर॑ज्न को देय दृष्टि से देखते दे थे इस बात पर शायद विचार नहीं करते कि विश्व के अधिकाश समर्थ और अतिमावान साहित्यकार यथेष्ठ रूप स इस मुण से मढित है। इसके विपरीत लेखकों का एक बहुत बड़ा समुदाय आज तियाशील है जो मनोरंजन के नाम पर मात्र दृषित आवज्ओं और सुदगियों को उभार कर ‘परापुलर’ होता  “मनोरजव’ के अ्तर्गत में ऐसे ‘पापुलर’ लोगों के साहित्य को चर्चा हों करने जा रहा हूँ । एल० (० जी० स्द्गांग ने ऐसे लोगों के लिए ठीक ही ‘काटरर! (7८८) शब्द का प्रयोग किया है। मेरी इष्टि म हर रचना भक साहित्यकार हमारे मन का रंजन या प्रसादन करता है ।

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